
भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने सहकारी बैंकिंग क्षेत्र के लिए दो महत्वपूर्ण प्रस्ताव पेश किए हैं, जिनका असर व्यापक होने की संभावना है। बुधवार को मौद्रिक नीति वक्तव्य पेश करते हुए आरबीआई गवर्नर संजय मल्होत्रा ने कहा कि केंद्रीय बैंक 20 वर्षों से अधिक समय बाद शहरी सहकारी बैंकों के लिए लाइसेंसिंग ढांचे की पुनः समीक्षा करेगा।
शहरी सहकारी बैंकों के लिए नई लाइसेंसिंग 2004 से रुकी हुई थी, जिसके पीछे पर्यवेक्षण और संचालन संबंधी चिंताएं थीं। हालांकि, गवर्नर मल्होत्रा ने बताया कि “क्षेत्र में सकारात्मक विकास और हितधारकों की बढ़ती मांग” को देखते हुए, आरबीआई जल्द ही नई शहरी सहकारी बैंकों की लाइसेंसिंग पर एक चर्चा-पत्र प्रकाशित करेगा।
इस चर्चा-पत्र के माध्यम से विशेषज्ञों, सहकारी बैंकिंग क्षेत्र से जुड़े लोगों और व्यापक वित्तीय समुदाय से सुझाव मांगे जाएंगे कि नए खिलाड़ियों को सहकारी बैंकिंग क्षेत्र में कैसे शामिल किया जा सकता है और साथ ही मजबूत निगरानी एवं स्थायी संचालन सुनिश्चित किया जा सके।
साथ ही, आरबीआई ने एक बड़ा उपभोक्ता-केंद्रित सुधार भी पेश किया है। इसके तहत मौजूदा इंटीग्रेटेड ओम्बड्समैन स्कीम, जो वर्तमान में वाणिज्यिक बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और चुनिंदा वित्तीय संस्थाओं तक सीमित है, अब ग्रामीण सहकारी बैंकों तक विस्तारित की जाएगी।
इसका मतलब है कि अब जिला केंद्रीय सहकारी बैंक और राज्य सहकारी बैंक भी पहली बार आरबीआई की मध्यस्थ सेवा प्रणाली के तहत सीधे शामिल होंगे। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में जमा धारक और ऋणी पारदर्शी, स्वतंत्र और प्रभावी मंच के माध्यम से अपनी शिकायतों का समाधान कर सकेंगे।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह कदम सहकारी संस्थाओं में ग्राहक विश्वास और जवाबदेही बढ़ाने की दिशा में अहम है, क्योंकि ये संस्थाएं किसानों, ग्रामीण उद्यमियों और छोटे उधारकर्ताओं के लिए वित्तीय रीढ़ की हड्डी का काम करती हैं।
दोनों पहलें आरबीआई की ओर से सहकारी बैंकिंग ढांचे को आधुनिक बनाने की दिशा में निर्णायक कदम हैं। इन प्रस्तावों से न केवल क्षेत्र का विस्तार होगा, बल्कि संचालन और सेवा के मानक भी उच्च होंगे, जिससे सहकारी बैंकिंग भारत की समावेशी विकास यात्रा में केंद्रीय भूमिका निभाती रहेगी।